तुर्क आक्रमण के पूर्व संपूर्ण भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था | उन सभी राज्यों का वर्णन हमारा ध्येय नहीं है | यहां केवल उन्हीं तत्वों पर प्रकाश डाला जाएगा जो भारतीय व्यवस्थाओं के मौलिक त्रुटियों के रूप में हमारे सामने आते हैं तथा जिन्होंने प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से मुस्लिम आक्रमणकारियों की सहायता की|


उन दिनों राजनीतिक शक्ति के रूप में केवल राजपूत राज्यों का महत्व था | राजपूतों की नीति ने भारत में सामंत शाही संस्थाओं को जन्म दिया | जाति की प्रथा ने समाज को संकरण वर्गों में विभाजित कर दिया था |
इस कारण यह भारत में सामूहिक नागरिकता की भावना लुप्त हो गई जो तुर्क आक्रमणकारियों के लिए बड़ा ही लाभदायक सिद्ध हुआ | भारतीय राजनीतिक जीवन की एक विशेषता बहुशासकीय प्रणाली थी| भारत ऐसे राष्ट्रों का समूह मात्र था जो प्रत्येक दृष्टि से स्वतंत्र थे | इन शासकों के बीच पारस्परिक द्वेष, कलह तथा संघर्ष की भावना बलवती होती गई |
एकता का प्रश्न ही नहीं था | राजपूत सरकारों का स्वरूप पूर्णता सामंती था | प्रत्येक राज्य जागीरो में विभाजित था | खेद की बात यह थी कि सामंत अपने कर्तव्यों की अवहेलना करने लगे थे |
उनके द्वारा निजी सेना का रखा जाना, कर लगाना तथा करो कि वसूली करना आदि बातों के कारण राजनीतिक सत्ता पूर्ण रूप से नष्ट हो गई थी और विकेंद्रीकरण की प्रवृत्ति को काफी बल मिला |
शासन और सीमा सेना पर सामंतों का प्रभाव व्यापक रूप से बढ़ गया जो राजा की सत्ता के लिए घातक सिद्ध हुआ इन सामंतों के आंतरिक द्वेष, कलह एवं संघर्ष के कारण सारे देश में आंतरिक अराजकता एवं अशांति की स्थिति उत्पन्न हो गई थी |
भारतीय समाज परंपरागत चार प्रधान वर्णों – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शुद्र में बटा हुआ था | अलबरूनी ने लिखा है, “हिंदू अपनी जातियों को वर्ण कहते हैं जिसका अर्थ है रंग और वंश वृक्ष के दृष्टिकोण से वे उन्हें जातक अर्थात जन्मित कहते हैं | आरंभ से ही यह जातियां 4 थी अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र |
ब्राह्मण समाज की चोटी पर थे और उन्हें मनुष्यों में सर्वोत्तम माना जाता था“ |
अलबरूनी के अनुसार वेदों का अध्ययन करने तथा मोक्ष प्राप्ति का अधिकार केवल ब्राह्मण तथा क्षत्रियों को ही था | क्षत्रिय शासन और सैनिक कार्य करते थे | वैश्य और शूद्र को समाज अनुक्रम में नीचे का दर्जा प्रदान किया गया था |
वैश्यों का मुख्य पेशा खेती, पशुपालन तथा व्यापार था |अलबरूनी के शब्दों में “शुद्ध ब्राह्मण के नौकर के समान थे” | वैश्य और शूद्र समस्त पवित्र ज्ञान से वंचित थे|
अगर यह वेदों का पाठ करते तो इनकी जीभ काट ली जाती थी | किंतु 11वीं शताब्दी में अलबरूनी, अबू सेना तथा सुल्तान महमूद के काल में यह मूर्खतापूर्ण पागल से भरी तथा आत्मघाती में तिथि और ब्राह्मणों को स्वयं बड़े तर्क वादी तथा अत्यंत प्रबुद्ध वर्गों के लोग थे, इस महान सामाजिक अपराध के लिए बहुत भयंकर मूल्य चुकाना था |
डोम, चांडाल, बधातू तथा हाड़ियों का भी एक अलग वर्ग था और वे सबसे निम्न कोटि के लोग होते थे | उन्हें गंदा काम करना पड़ता था | अलबरूनी लिखता है कि “वास्तव में वह लोग अवैध बच्चों की भांति समझे जाते थे और उनके साथ समाज से बहिष्कृत व्यक्ति की तरह व्यवहार किया जाता है”|
समाज छुआछूत की भयंकर बीमारी से पूरी तरह ग्रसित था जो अत्यंत विनाशकारी सिद्ध हुआ उल्लेखित तत्व भारतीय राजनीति तथा समाज की बड़ी कमजोरियां थी और तुर्कों की विजय में इनका व्यापक महत्व है |
तुर्कों का आक्रमण
- अपनी प्रारंभिक विजयों के बावजूद अरब भारत में सिंध तथा मुल्तान से आगे नहीं बढ़ सके | किंतु जिस कार्य का प्रारंभ अरबों ने किया था उसे आगे चलकर तुर्को ने पूरा किया |
- अरबों द्वारा सिंध विजय के पश्चात 300 वर्षों तक किसी विदेशी ने भारत पर दृष्टि नहीं डाली | अरबों के बाद भारत पर आक्रमण करने वाली जाति तुर्क थी | वास्तव में भारत की विजय तुर्को ने की थी और इस विजय का प्रभाव संपूर्ण भारत पर पड़ा |
- इस्लाम के इतिहास में जिन जातियों ने विशेष प्रभाव डाले हैं उनमें एक जाति तुर्कों की थी | तुर्क मूलतः मध्य एशिया के निवासी थे कालांतर में उनकी संख्या में वृद्धि हुई और उनका विस्तार पश्चिम एशिया में हो गया |
- उनका सांस्कृतिक स्तर निम्न श्रेणी का था परंतु, वह बड़े खूंखार लड़ाके थे | तुर्कों का विशेष प्रभावकारी युग 10 वीं शताब्दी से आरंभ होता है इससे कुछ पहले ही तुर्कों ने इस्लाम अंगीकार कर लिया था | तुर्क वैसे भी बर्बर और खूंखार थे इस्लाम के जोश ने उन्हें और भी अधिक कट्टर बना दिया |
- 10 वीं शताब्दी तक अब्बासी वंश पतन की ओर बढ़ने लगा था | इस शताब्दी के बाद अब्बासी खलीफा केवल नामधारी शासक रह गए थे | राजधानी के बाहर तो क्या उसके भीतर भी उनका अधिकार उनके संरक्षण हो पर निर्भर हो गया |
- इस कार्य में खिलाफत के पूर्वी साम्राज्य में विभिन्न स्वतंत्र राजवंश स्थापित हुए जिनका भारतीय इतिहास और तुर्कों के उत्थान से घनिष्ठ संबंध है | इसमें समानी राजवंश सर्वाधिक महत्वपूर्ण था | इसकी स्थापना तुर्को द्वारा की गई थी | इस्माइल इस वंश का संस्थापक था | इसकी राजधानी बुखारा में थी |
गजनी का उत्थान-तुर्क आक्रमण
इस वर्ष का एक उल्लेखनीय शासक अहमद था | उसने अलप्तगिन नामक एक तुर्क दास को खरीदा | उसकी योग्यता को देखकर अहमद ने उसे बलख का हाकिम (प्रांतीय शासक) नियुक्त कर दिया | आगे चलकर इसी अलप्तगिन ने 1932 ईस्वी में गजनी में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की |
सुबुक्तगीन
अलप्तगिन की मृत्यु के पश्चात उसके दामाद और दास सुबुक्तगीन ने 1977 ईस्वी में गजनी पर अपना अधिकार कर लिया उसने लगभग 20 वर्षों तक शासन किया |
तुर्कों के प्रारंभिक अभियान
- सुबुक्तगीन एक योग्य, पराक्रमी एवं महत्वाकांक्षी शासक था | यद्यपि उसका अधिकांश समय मध्य एशिया की राजनीतिक उलझनों में बीता, फिर भी उसने भारत पर धावे मारे | उस समय पंजाब में जयपाल शाही का राज्य था |
- जयपाल को गजनी के शासक के आक्रमण के खतरे की अनुभूति थी | उसने एक बड़ी सेना लेकर 1986-87 ईसवी में गजनी पर आक्रमण कर दिया | किंतु एक भयंकर तूफान के कारण उसकी सेना अस्त-व्यस्त हो गई और उसे सुबुक्तगीन के साथ एक अपमानजनक संधि करनी पड़ी |
- उसने युद्ध का हर्जाना, 50 हाथी तथा अपने कुछ भूमि सुबुक्तगीन को देने का वचन दिया | किंतु लाहौर लौटने पर उसने संधि की शर्तों को मानने से इनकार कर दिया|
- कन्नौज के प्रतिहार, चौहान तथा चंदेल राजाओं ने जयपाल को सहयोग भी किया | गजनी का शासक लूटपाट से प्राप्त अतुल धनराशि लेकर लौट गया | जीते हुए प्रदेश की रक्षा के लिए पेशावर में एक सेना रख दी गई |
- सुबुक्तगीन एक महान विजेता एवं साम्राज्य निर्माता था | उसने एक स्थिति साम्राज्य की स्थापना की | यद्यपि उसने पंजाब के शाही शासक जयपाल तथा उसके कुछ अन्य भारतीय सहयोगीयों को परास्त किया, किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि उसने भारत में ना तो अपने साम्राज्य का विस्तार किया और ना वह वहां इस्लाम के प्रचार की विशेष इच्छा ही रखता था | फिर भी उसने भारत विजय के युग का प्रारंभ कर दिया था जिसका अनुसरण करके उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी महमूद गजनी ने भारत के विरुद्ध अपने प्रसिद्ध अभियान किए |
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